हिंदी का इतिहास और कालखंड
विष्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति मानी जाती है। इसकी प्राचीनता का एक प्रमाण यहां की भाषाएं भी है। भाषाओं की –ष्टि से कालखंड का विभाजन निम्नानुसार किया जाता है &
- वैदिक संस्कृत
- लौकिक संस्कृत
- पाली
- प्राकृत
- अपभ्रंश तथा अव्त्त
- हिंदी का आदिकाल
- हिंदी का मध्यकाल
- हिंदी का आधुनिक काल
हिंदी शब्द की उत्पति ‘सिन्धु` से जुड़ी है। ‘सिन्धु’ ‘सिंध’ नदी को कहते हैं। सिन्धु नदी के आस&पास का क्षेत्र सिन्धु प्रदेश कहलाता है। संस्कृत शब्द ‘सिन्धु` ईरानियों के सम्पर्क में आकर हिन्दू या हिंद हो गया। ईरानियों द्वारा उच्चारित किया गए इस हिंद शब्द में ईरानी भाषा का ‘एक` प्रत्यय लगने से ‘हिन्दीक` शब्द बना है जिसका अर्थ है ‘हिंद का`। यूनानी शब्द ‘इंडिका` या अंग्रेजी शब्द ‘इंडिया` इसी ‘हिन्दीक` के ही विकसित रूप हैं।
हिंदी का साहित्य 1000 ईसवी से प्राप्त होता है। इससे पूर्व प्राप्त साहित्य अपभ्रंश में है इसे हिंदी की पूर्व पीठिका माना जा सकता है। आधुनिक भाषाओं का जन्म अपभ्रंश के विभिन्न रूपों से इस प्रकार हुआ है :
हिंदी का साहित्य 1000 ईसवी से प्राप्त होता है। इससे पूर्व प्राप्त साहित्य अपभ्रंश में है इसे हिंदी की पूर्व पीठिका माना जा सकता है। आधुनिक भाषाओं का जन्म अपभ्रंश के विभिन्न रूपों से इस प्रकार हुआ है :
- अपभ्रंश - आधुनिक भाषाएं
- शौरसेनी - पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी, पहाड़ी , गुजराती’
- पैशाची - लहंदा, पंजाबी
- ब्राचड – सिंधी
- महाराष्ट्री - मराठी
- मगधी – बिहारी, बंगला, ओड़िसा, असमिया
- पश्चिमी हिंदी - खड़ी बोली या कौरवी, ब्रज, हरियाणवी, बुन्देल, कन्नौजी
- पूवब हिंदी – अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी
- राजस्थानी – पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी) पूवब राजस्थानी
- पहाड़ी - पश्चिमी पहाड़ी, मध्यवतब पहाड़ी (कुमाऊंनी- गढ़वाली)
- बिहारी – भोजपुरी, मागधी, मैथिलीआदिकाल – (1000-1500)
आदिकाल -(1000-1500)

मध्यकाल -(1500- 1800 तक)
इस अवधि में हिंदी में बहुत परिवर्तन हुए। देश पर मुगलों का शासन होने के कारण उनकी भाषा का प्रभाव हिंदी पर पड़ा। परिणाम यह हुआ की फारसी के लगभग 3500 शब्द, अरबी के 2500 शब्द, पश्तों से 50 शब्द, तुकब के 125 शब्द हिंदी की शब्दावली में शामिल हो गए। यूरोप के साथ व्यापार आदि से संपर्क बढ़ रहा था। परिणामस्वरूप पुर्तगाली, स्पेनी, फ्रांसीसी और अंग्रेजी के शब्दों का समावेश हिंदी में हुआ। मुगलों के आधिपत्य का प्रभाव भाषा पर दिखाई पड़ने लगा था। मुगल दरबार में फारसी पढ़े-लिखे विद्वानों को नौकरियाँ मिली थीं परिणामस्वरूप पढ़े-लिखे लोग हिंदी की वाक्य रचना फारसी की तरह करने लगे। इस अवधि तक आते- आते अपभ्रंश का पूरा प्रभाव हिंदी से समाप्त हो गया जो आंशिक रूप में जहाँ कहीं शेष था वह भी हिंदी की प्रकृति के अनुसार ढलकर हिंदी का हिस्सा बन रहा था।
इस अवधि में हिंदी के स्वर्णिम साहित्य का सृजन हुआ। भक्ति आंदोलन ने देश की जनता की मनोभावना को प्रभावित किया। भक्ति कवियों में अनेक विद्वान थे जो तत्सम मुक्त भाषा का प्रयोग कर रहे थे। राम और कृष्ण जन्म स्थान की ब्रज भाषा में काव्य रचना की गई, जो इस काल के साहित्य की मुख्यधारा मानी जाती हैं। इसी अवधि में दक्खनी हिंदी का रूप सामने आया। पिंगल, मैथिली और खड़ी बोली में भी रचनाएं लिखी जा रही थी। इस काल के मुख्य कवियों में महाकवि तुलसीदास, संत सूरदास, संत मीराबाई, मलिक मोहम्मद जायसी, बिहारी, भूषण हैं। इसी कालखंड में रचा गया ‘रामचरितमानस` जैसा ग्रन्थ विष्व में विख्यात हुआ।
हिंदी में क, ख, ग, ज, फ, ये पांच नई ध्वनियां, जिनके उच्चारण प्रायः फारसी पढ़े- लिखे लोग ही करते थे। इस काल के भक्त निर्गुण और सगुण उपासक थे। कवियों को रामाश्रयी और कृष्णाश्रयी शाखाओं में बांटा गया। इसी अवधि में रीतिकालीन काव्य भी लिखा गया।
इस अवधि में हिंदी के स्वर्णिम साहित्य का सृजन हुआ। भक्ति आंदोलन ने देश की जनता की मनोभावना को प्रभावित किया। भक्ति कवियों में अनेक विद्वान थे जो तत्सम मुक्त भाषा का प्रयोग कर रहे थे। राम और कृष्ण जन्म स्थान की ब्रज भाषा में काव्य रचना की गई, जो इस काल के साहित्य की मुख्यधारा मानी जाती हैं। इसी अवधि में दक्खनी हिंदी का रूप सामने आया। पिंगल, मैथिली और खड़ी बोली में भी रचनाएं लिखी जा रही थी। इस काल के मुख्य कवियों में महाकवि तुलसीदास, संत सूरदास, संत मीराबाई, मलिक मोहम्मद जायसी, बिहारी, भूषण हैं। इसी कालखंड में रचा गया ‘रामचरितमानस` जैसा ग्रन्थ विष्व में विख्यात हुआ।
हिंदी में क, ख, ग, ज, फ, ये पांच नई ध्वनियां, जिनके उच्चारण प्रायः फारसी पढ़े- लिखे लोग ही करते थे। इस काल के भक्त निर्गुण और सगुण उपासक थे। कवियों को रामाश्रयी और कृष्णाश्रयी शाखाओं में बांटा गया। इसी अवधि में रीतिकालीन काव्य भी लिखा गया।
आधुनिक काल (1800 से अब तक )
हिंदी का आधुनिक काल देश में हुए अनेक परिवर्तनों का साक्षी है। परतंत्र में रहते हुए देशवासी इसके विरुद्ध खड़े होने का प्रयास कर रहे थे। अंग्रेजी का प्रभाव देश की भाषा और संस्कृति पर दिखाई पड़ने लगा। अंग्रेजी शब्दों का प्रचलन हिंदी के साथ बढ़ने लगा। मुगलकालीन व्यवस्था समाप्त होने से अरबी, फारसी के शब्दों के प्रचलन में गिरावट आई। फारसी से स्वीकार क, ख, ग, ज, फ ध्वनियों का प्रचलन हिंदी में समाप्त हुआ। अपवादस्वरूप कहीं- कहीं ज और फ ध्वनि शेष बची। क, ख, ग ध्वनियां क, ख, ग में बदल गई। इस पूरे कालखंड को 1800 से 1850 तक और फिर 1850 से 1900 तक तथा 1900 का 1910 तक और 1950 से 2000 तक विभाजित किया जा सकता है।
संवत् 1830 में जन्मे मुंशी सदासुख लाल नियाज ने हिंदी खड़ी बोली को प्रयोग में लिया। खड़ी बोली उस समय भी अस्तित्व में थी। खड़ी बोली या कौरवी का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश के उत्तरी रूप से हुआ है। इसका क्षेत्र देहरादून का मैदानी भाग, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरुत, दिल्ली बिजनौर, रामपुर, मुरादाबाद है। इस बोली में पर्याप्त लोक गीत और लोक कथाएं मौजूद हैं। खड़ी बोली पर ही उर्दू, हिन्दुस्तानी और दक्खनी हिंदी निर्भर करती है। मुंशी सदा सुखलाल नियाज के अलावा इंशा अल्लाह खान इसी अवधि के लेखक है। इनकी रानी केतकी की कहानी पुस्तक प्रसिद्ध है। लल्लूलाल, इस काल खंड के एक और प्रसिद्ध लेखक हैं। इनका जन्म संवत 1820 में हुआ था। कोलकाता के फोर्ट विलियम कॉलेज के अध्यापक जॉन गिलक्रिस्ट के अनुरोध पर लल्लूलाल जी ने पुस्तक ‘प्रेम सागर` खड़ी बोली में लिखी थी।
प्रेम सागर के आलावा सिंहासन बत्तीसी, बेताल पचीसी, शकुंतला नाटक भी इनकी पुस्तकें हैं जो खड़ी बोली में, ब्रऔर उर्दू के मिश्रित रूप में हैं। इसी कालखंड के एक और लेखक सदल मिश्र हैं। इनकी नचिकेतोपाख्यान पुस्तक प्रसिद्ध है। सदल मिश्र ने अरबी और फारसी के शब्दों का प्रयोग न के बराबर किया है। खड़ी बोली में लिखी गई इस पुस्तक में संस्कृत के शब्द अधिक हैं। संवत 1860 से 1914 के बीच के समय में कालजयी कृतियां प्रायः नहीं मिलतीं। 1860 के आसपास तक हिंदी गद्य प्रारूप अपना निश्चित स्वरूप ग्रहण कर चुका था।
इसका लाभ लेने के लिए अंग्रेजी पादरियों ने ईसाई धर्म के प्रचार- प्रसार के लिए बाईबल का अनुवाद खड़ी बोली में किया यद्यपि इनका लक्ष्य अपने धर्म का प्रचार- प्रसार करना था। तथापि इसका लाभ हिंदी को मिला देश की साधारण जनता अरबी- फारसी मिश्रित भाषा में अपने पौराणिक आख्यानों को कहती और सुनती थी। इन पादरियों ने भी भाषा के इसी मिश्रित रूप का प्रयोग किया। अब तक 1857 का पहला स्वतंत्रता युद्ध लड़ा जा चुका था अतः अंग्रेजी शासकों की कूटनीति के सहारे हिंदी के माध्यम से बाइबिल के धर्म उपदेशों का प्रचार- प्रसार खूब हो रहा था। भारतेंदु हरिश्चंौ ने हिंदी नवजागरण की नींव रखी। उन्होंने अपनें नाटकों, कविताओं, कहावतों और किस्सागोई के माध्यम से हिंदी भाषा के उत्थान के लिए खूब काम किया। अपने पत्र ‘कविवचनसुधा` के माध्यम से हिंदी का प्रचार- प्रसार किया।
गद्य में सदल मिश्र, सदासुखलाल,लल्लू लाल आदि लेखकों ने हिंदी खड़ीबोली को स्थापित करने का काम किया। भारतेंदु हरिश्चंौ ने कविता को ब्रज भाषा से मुक्त किया उसे जीवन के यथार्थ से जोड़ा।
सन् 1866 की अवधि के लेखकों में पंडित बौाh&नारायण चौधरी, पंडित प्रताप नारायण मिश्रल बाबू तोता राम, ठाकुर जगमोहन सिंह, पंडित बाल कृष्ण भट्ट, पंडित केशवदास भट्ट, पंडित अम्बिकादत्त व्यास, पंडित राधारमण गोस्वामी आदि आते हैं। हिंदी भाषा और साहित्य को परमार्जित करने के उद्देश्य से इस कालखंड में अनेक पत्र- पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इनमें हरिश्चन्ौ चन्ौिका, हिन्दी बंगभाषी,
उचितवक्ता, भारत मित्र, सरस्वती, दिनकर प्रकाश आदि। 1900 वीं सदी का आरंभ हिन्दी भाषा के विकास की –ष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। इस समय देश में स्वतंत्रता आंदोलन प्रारंभ हुआ था।
राष्ट्र में कई तरह के आंदोलन चल रहे थे। इनमें कुछ गुप्त और कुछ प्रकट थे पर इनका माध्यम हिंदी ही थी अब हिंदी केवल उत्तर भारत तक ही सीमित नहीं रह गई थी। हिंदी अब तक पूरे भारतीय आन्दोलन की भाषा बन चुकी थी। साहित्य की –ष्टि से बांग्ला, मराठी हिन्दी से आगे थीं परन्तु बोलने वालों के लिहाज से हिन्दी सबसे आगे थी। इसीलिए हिन्दी को राजभाषा बनाने की पहल गांधीजी समेत देश के कई अन्य नेता भी कर रहे थे। सन् 1918 में हिंदी साहित्य सम्मलेन की अध्यक्षता करते हुए गांधी जी ने कहा था की हिंदी ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। सन् 1900 से लेकर 1950 तक हिंदी के अनेक रचनाकारों ने इसके विकास में योगदान दिया इनमें मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, सुभौाकुमारी चौहान, आचार्य रामचंौ शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पन्त, महादेवी वर्मा प्रमुख रहे।
संवत् 1830 में जन्मे मुंशी सदासुख लाल नियाज ने हिंदी खड़ी बोली को प्रयोग में लिया। खड़ी बोली उस समय भी अस्तित्व में थी। खड़ी बोली या कौरवी का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश के उत्तरी रूप से हुआ है। इसका क्षेत्र देहरादून का मैदानी भाग, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरुत, दिल्ली बिजनौर, रामपुर, मुरादाबाद है। इस बोली में पर्याप्त लोक गीत और लोक कथाएं मौजूद हैं। खड़ी बोली पर ही उर्दू, हिन्दुस्तानी और दक्खनी हिंदी निर्भर करती है। मुंशी सदा सुखलाल नियाज के अलावा इंशा अल्लाह खान इसी अवधि के लेखक है। इनकी रानी केतकी की कहानी पुस्तक प्रसिद्ध है। लल्लूलाल, इस काल खंड के एक और प्रसिद्ध लेखक हैं। इनका जन्म संवत 1820 में हुआ था। कोलकाता के फोर्ट विलियम कॉलेज के अध्यापक जॉन गिलक्रिस्ट के अनुरोध पर लल्लूलाल जी ने पुस्तक ‘प्रेम सागर` खड़ी बोली में लिखी थी।

इसका लाभ लेने के लिए अंग्रेजी पादरियों ने ईसाई धर्म के प्रचार- प्रसार के लिए बाईबल का अनुवाद खड़ी बोली में किया यद्यपि इनका लक्ष्य अपने धर्म का प्रचार- प्रसार करना था। तथापि इसका लाभ हिंदी को मिला देश की साधारण जनता अरबी- फारसी मिश्रित भाषा में अपने पौराणिक आख्यानों को कहती और सुनती थी। इन पादरियों ने भी भाषा के इसी मिश्रित रूप का प्रयोग किया। अब तक 1857 का पहला स्वतंत्रता युद्ध लड़ा जा चुका था अतः अंग्रेजी शासकों की कूटनीति के सहारे हिंदी के माध्यम से बाइबिल के धर्म उपदेशों का प्रचार- प्रसार खूब हो रहा था। भारतेंदु हरिश्चंौ ने हिंदी नवजागरण की नींव रखी। उन्होंने अपनें नाटकों, कविताओं, कहावतों और किस्सागोई के माध्यम से हिंदी भाषा के उत्थान के लिए खूब काम किया। अपने पत्र ‘कविवचनसुधा` के माध्यम से हिंदी का प्रचार- प्रसार किया।
गद्य में सदल मिश्र, सदासुखलाल,लल्लू लाल आदि लेखकों ने हिंदी खड़ीबोली को स्थापित करने का काम किया। भारतेंदु हरिश्चंौ ने कविता को ब्रज भाषा से मुक्त किया उसे जीवन के यथार्थ से जोड़ा।
सन् 1866 की अवधि के लेखकों में पंडित बौाh&नारायण चौधरी, पंडित प्रताप नारायण मिश्रल बाबू तोता राम, ठाकुर जगमोहन सिंह, पंडित बाल कृष्ण भट्ट, पंडित केशवदास भट्ट, पंडित अम्बिकादत्त व्यास, पंडित राधारमण गोस्वामी आदि आते हैं। हिंदी भाषा और साहित्य को परमार्जित करने के उद्देश्य से इस कालखंड में अनेक पत्र- पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इनमें हरिश्चन्ौ चन्ौिका, हिन्दी बंगभाषी,
उचितवक्ता, भारत मित्र, सरस्वती, दिनकर प्रकाश आदि। 1900 वीं सदी का आरंभ हिन्दी भाषा के विकास की –ष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। इस समय देश में स्वतंत्रता आंदोलन प्रारंभ हुआ था।
राष्ट्र में कई तरह के आंदोलन चल रहे थे। इनमें कुछ गुप्त और कुछ प्रकट थे पर इनका माध्यम हिंदी ही थी अब हिंदी केवल उत्तर भारत तक ही सीमित नहीं रह गई थी। हिंदी अब तक पूरे भारतीय आन्दोलन की भाषा बन चुकी थी। साहित्य की –ष्टि से बांग्ला, मराठी हिन्दी से आगे थीं परन्तु बोलने वालों के लिहाज से हिन्दी सबसे आगे थी। इसीलिए हिन्दी को राजभाषा बनाने की पहल गांधीजी समेत देश के कई अन्य नेता भी कर रहे थे। सन् 1918 में हिंदी साहित्य सम्मलेन की अध्यक्षता करते हुए गांधी जी ने कहा था की हिंदी ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। सन् 1900 से लेकर 1950 तक हिंदी के अनेक रचनाकारों ने इसके विकास में योगदान दिया इनमें मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, सुभौाकुमारी चौहान, आचार्य रामचंौ शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पन्त, महादेवी वर्मा प्रमुख रहे।
हिंदी की तकनीकी क्रांति का दषक
हिंदी की तकनीकी क्रांति का दषक
तकनीक की दुनिया में हिंदी की स्थिति उतनी दयनीय नहीं है, जितनी कि दूसरे कारोबारी क्षेत्रों में है। खासकर पिछला एक दशक हिंदी के तकनीकी विकास की दिशा में अहम् सिद्ध हुआ है। दस साल पहले हिंदी में डिजिटल युक्तियों पर काम करने के इच्छुक लोगों को जिस किस्म की उलझन और बेचारगी के अनिवार्य अहसास से गुजरना पड़ता था, वैसा अब नहीं रहा। थोड़ी- बहुत कोशिश कीजिए तो आप अधिकांश तकनीकी माध्यमों पर हिंदी में काम कर ही लेंगे। वैसे आज भी हिंदी, अंग्रेजी, यूरोपीय भाषाओं, जापानी, रूसी और अरबी भाषाओं ने तरक्की निस्संदेह की है।
यह तरक्की नजर भी आती है। हर नए कम्प्यूटर ऑपरेटिंग सिस्टम (विंडोज, मैकिण्टोश, लिनक्स आदि) में यूनिकोड की कृपा से हिंदी- देवनागरी पहले से ही विद्यमान हैं। अधिकांश हैंडहेल्ड डिवाइसेज (टैबलेट्स, स्मार्टफोन्स आदि) में भी हिंदी लिखना नहीं तो कम- से- कम पढ़ना और हिंदी की इंटरनेट साइट्स को देखना तो संभव है ही। हिंदी समर्थित वेब सर्विसेज (ईमेल, अनुवाद, टेक्स्ट टू स्पीच, ई- कॉमर्स, क्लाउड आधारित सर्विसेज) का उपयोग करना आसान है। अपने आसपास की तकनीकी सेवाओं में भी यदाकदा हिंदी दिखने लगी है, जैसे एटीएम मशीनों पर। देवनागरी में टेक्स्ट इनपुट करने के ऑफलाइन, ऑनलाइन टूल्स की कोई कमी नहीं रही और करीब- करीब हर आधुनिक सॉफ्टवेयर पर, चाहे वह माइक्रोसॉफ्ट परिवार से आया हो या फिर एडोब परिवार से, यूनिकोड हिंदी में पूरा या थोड़ा काम किया जा सकता हैं, हालांकि पेजमेकिंग, ग्राफिक्स, एनीमेशन आदि से जुड़े सॉफ्टवेयरों में हिंदी का शत- प्रतिशत समर्थन न होना थोड़ा या निराशाजनक है।
तकनीकी विष्व में हिंदी की बहार दिखाई देती है- सोशल नेटवर्किंग और ब्लॉगिंग में। इनमें से पहला माध्यम चढ़ाव पर है तो दूसरे में ठहराव है। जिस अंदाज में हिंदी विष्व में फेसबुक को अपनाया है, वह अद्भुत है। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों को भूल जाइए, लखनऊ, पटना और जयपुर जैसी राजधानियों को भी भूल जाइए- छोटे- छोटे गांवों और कस्बों तक के युवा, बुजुर्ग, बच्चे फेसबुक पर आ जमे और खूब सारी बातें कर रहे हैं- हिंदी में। सोशल नेटवर्कों की हिंदी भी अपने आप में विलक्षण है- हिंदी, अंग्रेजी, देशज, तकनीकी, चित्रात्मक और अनौपचारिक शब्दावली से भी हुई। लेकिन है बहुत दिलचस्प। आप चाहें तो इस हिंदी का छिौान्वेषण कर उसकी भाषायी सीमाओं, त्रुटियों और विसंगतियों पर थीसिस लिख सकते हैं लेकिन यदि आप हिंदी के प्रसार में दिलचस्पी रखते हैं तो यह तथ्य अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि वह है तो हिंदी ही। शायद हिंदी की एक अलग खुशबू है। कौन जाने आगे चलकर सोशल नेटवर्किंग और ब्लॉगिंग से उपजी शब्दावली, वाक्य- विन्यास और भाषिक प्रवृत्तियां मुख्यधारा की हिंदी पर भी कोई- न- कोई असर डालें।
पिछले तीन- चार साल में यदि तकनीकी दुनिया में हिंदी से जुड़ी कोई क्रांति दिखाई देती है तो वह है सोशल नेटवर्किग की क्रांति। चूंकि संदेशों का आदान&प्रदान नेटवर्किंग की मूलभूत अनिवार्यता और पहचान है, इसलिए वह एक से दो, दो से चार लोगों को आपस में संपर्क करने के लिए प्रेरित कर रही हैं। संदेश जब तक अपनी भाषा में न हों, अपने आसपास के परिवेश से जुड़े हुए न हों तब तक न तो बात करने वाले को तसल्ली देते हैं और न ही उसे सुनने वाले को। अंग्रेजी में संदेश भेज कर देखिए। अगर आपकी मातृभाषा हिंदी है तो आपको एक कसक- सी महसूस होगी। लगेगा कि अभिव्यक्ति में वह बात नहीं आई। लेकिन उसी को हिंदी, बंगला, गुजराती या तमिल में भेजकर देखिए तो सुकून महसूस होगा। अपनी मातृभाषा माँ के समान है, जिसके साथ कोई संकोच, कोई परदा, कोई औपचारिकता और कोई आडम्बर करने की जरूरत नहीं है। जैसा सोचते हैं, वैसा लिख सकते हैं। तकनीकी दुनिया में हिंदी जैसी भाषाओं को आगे बढ़ाने के लिए फेसबुक एक बहुत अच्छा उपकरण सिद्ध हो सकता है।
हजारों लोग जो हिंदी में टाइपिंग करना भी नहीं जानते थे, वे सिर्फ इसलिए टाइपिंग के टूल्स की तलाश में लगे हैं ताकि वे हिंदी में संदेश भेज सकें। दूसरे हजारों लोग ऐसा सफलतापूर्वक कर भी चुके हैं। बहुतों ने तो खासतौर पर इसीलिए हिंदी में टाइपिंग सीखी है। उनकी छोटी&छोटी टिप्पणियाँ हिंदी की समन्वित शक्ति में इजाफा कर रही हैं।
क्या सोशल नेटवर्किंग हमारी भाषा को विकृत भी कर रही है? हां, यकीनन। क्योंकि जिस अंदाज में वह हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बनती जा रही है, उसमें प्रयुक्त भाषा का बहाव दैनिक जीवन तक भी होना स्वाभाविक है। बहुत से लोग धीरे- धीरे उन शब्दों को अपना लेंगे जिनकी रचना फेसबुक की उर्वर भूमि पर हुई है। किंतु यह भाषा पर है कि वह किस समझदारी के साथ अपने आपको विकृतियों से मुक्त रखते हुए इन शब्दों को अपनाती है। आवश्यक नहीं कि ये शब्द परिनिष्ठित हिंदी का हिस्सा बनें लेकिन हमारी समग्र शब्दावली का हिस्सा वे जरूर बन सकते हैं क्योंकि भाषा वहीं आगे बढ़ती है जो तरल और बहती हुई है, जो नए तत्वों से वितृष्णा नहीं रखती बल्कि ‘सार सार को गहि रहे, थोथा देइ उड़ाय` वाली प्रवृत्ति से युक्त होती है।


पिछले तीन- चार साल में यदि तकनीकी दुनिया में हिंदी से जुड़ी कोई क्रांति दिखाई देती है तो वह है सोशल नेटवर्किग की क्रांति। चूंकि संदेशों का आदान&प्रदान नेटवर्किंग की मूलभूत अनिवार्यता और पहचान है, इसलिए वह एक से दो, दो से चार लोगों को आपस में संपर्क करने के लिए प्रेरित कर रही हैं। संदेश जब तक अपनी भाषा में न हों, अपने आसपास के परिवेश से जुड़े हुए न हों तब तक न तो बात करने वाले को तसल्ली देते हैं और न ही उसे सुनने वाले को। अंग्रेजी में संदेश भेज कर देखिए। अगर आपकी मातृभाषा हिंदी है तो आपको एक कसक- सी महसूस होगी। लगेगा कि अभिव्यक्ति में वह बात नहीं आई। लेकिन उसी को हिंदी, बंगला, गुजराती या तमिल में भेजकर देखिए तो सुकून महसूस होगा। अपनी मातृभाषा माँ के समान है, जिसके साथ कोई संकोच, कोई परदा, कोई औपचारिकता और कोई आडम्बर करने की जरूरत नहीं है। जैसा सोचते हैं, वैसा लिख सकते हैं। तकनीकी दुनिया में हिंदी जैसी भाषाओं को आगे बढ़ाने के लिए फेसबुक एक बहुत अच्छा उपकरण सिद्ध हो सकता है।
हजारों लोग जो हिंदी में टाइपिंग करना भी नहीं जानते थे, वे सिर्फ इसलिए टाइपिंग के टूल्स की तलाश में लगे हैं ताकि वे हिंदी में संदेश भेज सकें। दूसरे हजारों लोग ऐसा सफलतापूर्वक कर भी चुके हैं। बहुतों ने तो खासतौर पर इसीलिए हिंदी में टाइपिंग सीखी है। उनकी छोटी&छोटी टिप्पणियाँ हिंदी की समन्वित शक्ति में इजाफा कर रही हैं।
क्या सोशल नेटवर्किंग हमारी भाषा को विकृत भी कर रही है? हां, यकीनन। क्योंकि जिस अंदाज में वह हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बनती जा रही है, उसमें प्रयुक्त भाषा का बहाव दैनिक जीवन तक भी होना स्वाभाविक है। बहुत से लोग धीरे- धीरे उन शब्दों को अपना लेंगे जिनकी रचना फेसबुक की उर्वर भूमि पर हुई है। किंतु यह भाषा पर है कि वह किस समझदारी के साथ अपने आपको विकृतियों से मुक्त रखते हुए इन शब्दों को अपनाती है। आवश्यक नहीं कि ये शब्द परिनिष्ठित हिंदी का हिस्सा बनें लेकिन हमारी समग्र शब्दावली का हिस्सा वे जरूर बन सकते हैं क्योंकि भाषा वहीं आगे बढ़ती है जो तरल और बहती हुई है, जो नए तत्वों से वितृष्णा नहीं रखती बल्कि ‘सार सार को गहि रहे, थोथा देइ उड़ाय` वाली प्रवृत्ति से युक्त होती है।
इंटरनेट की दुनिया में हिंदी का भविश्य
इंटरनेट की दुनिया में हिंदी का भविश्य
इंटरनेट पर हिंदी अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर चुकी है। यह सिद्ध हो चुका है कि हिंदी किसी भी उच्च- भ्रू तकनीक के अनुकूल है। हिंदी की वेबसाइटों की संख्या जिस अनुपात में बढ़ रही है उसी अनुपात में इसके पाठकों की संख्या भी बढ़ रही है। लेकिन अभी हिंदी को नेट पर बहुत लंबा सफ़र तय करना है। इसके मार्ग में अनेक तकनीकी बाधाएँ हैं। इन बाधाओं के बारे में आगे बात करेंगे। पहले इस मिथक की बात करें जिसे हिंदी के प्रबुद्ध वर्ग तक ने अपने मन में बैठा रखा है। मिथक यह है कि इंटरनेट, शब्द और अंततः किताब के लिए खतरा है। प्रबुद्ध वर्ग का इस उच्च- भ्रू तकनीक से अलगाव विचारधारात्मक उतना नहीं हैं, जितना कि इसके दाँव- पेंचों को न समझ पाने (जैसे आर्थिक या फिर तकनीकी जटिलताओं से अनुकूलन न कर पाना) के कारण है। अतः वे इससे एक दूरी बरतना ही पसंद करते हैं। इसलिए सबसे पहले इंटरनेट पर किताबों- पत्रिकाओं की संभावनाओं की बात की जाए।
भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में दुनिया बहुत तेज़ी से सिकुड़ती और पास आती जा रही है। वैष्विक ग्राम की अवधारणा के पीछे सूचना क्रांति की शक्ति है। इस प्रक्रिया में इंटरनेट की भूमिका असंदिग्ध है। जहाँ दुनिया भर में पाठकों की संख्या का ग्राफ़ नीचे आया है, वहीं सूचना क्रांति को किताब पर छाए ख़तरे के रूप में भी देखा जा रहा है। इलेक्ट्रानिक माध्यमों में इंटरनेट एक ऐसा माध्यम हैं, जहाँ कथा और अ- कथा साहित्य बहुतायत में उपलब्ध हो सकते हैं। इसका अर्थ है कि इंटरनेट पर कोई भी कृति इंटरनेट पाठक वर्ग के लिए डाउनलोड की जा सकती है। इससे वेब पीढ़ी के पाठक तो अनमोल साहित्य और वैचारिक पुस्तकों से जुड़ेंगे ही, साथ में पुस्तक के वर्तमान स्वरूप में एक नया आयाम भी जुड़ेगा। इस दिशा में प्रयास हुए भी हैं, उदाहरण के तौर पर माइक्रोफ़िल्म को सामने रखते हैं। ख़ास अर्थे में यह भी पुस्तक की परिभाषा में एक नया आयाम तो जोड़ती है, लेकिन महँगाई और जटिल तकनीक के कारण इसकी पहुँच सीमित है, जबकि इंटरनेट का फैलाव विष्वव्यापी है।
सही मायनों में किताब के व्यापक प्रसार की प्रक्रिया पंौहवी शताब्दी में प्रिटिंग प्रेस के आविष्कार के बाद से ही आरंभ हुई थी। इसने ज्ञान पर कुछ विशिष्ट लोगों के एकाधिकार को तोड़ा और आमजन के लिए ज्ञान की नई दुनिया के द्वार खोले। अब यही काम इंटरनेट भी कर रहा है, लेकिन ज्यादा तीव्रता से और व्यापक स्तर पर, इंटरनेट ने सूचना या ज्ञान पर एकाधिकार को तोड़ा और विकेंौित किया है। विष्वव्यापी संजाल (वर्ल्ड वाइड वेब जो संक्षेप में डब्ल्यू.डब्ल्यू.डब्ल्यू. कहलाता है) के ज़रिए इंटरनेट उपयोगकर्ता दुनिया भर की कैसी भी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार जो कार्य प्रिटिंग मशीन के आविष्कार से आरंभ हुआ था, उसे इंटरनेट ने विस्तार ही दिया है, अतिशय सूचना की समस्या और इस पर किसी एक ही व्यक्ति विशेष के वर्चस्व के प्रश्न को निश्चित ही अनदेखा नहीं किया जा सकता, इस ओर सावधान रहने की आवश्यकता है। जहाँ तक इंटरनेट पर साहित्यिक कृतियाँ उपलब्ध कराने की बात है, तो यह प्रकाशकों और साहित्यकारों की इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है। प्रारंभिक दौर में हम पीछे रह गए हैं।
इंटरनेट की उपयोगिता को सबसे पहले विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं ने ही समझा। टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, नई दुनिया, इंडिया टुडे, आउटलुक जैसी पत्रिकाओं ने अपने इंटरनेट संस्करण निकालने आरंभ किए, इससे निश्चित ही इन पत्र- पत्रिकाओं की पाठक संख्या बढ़ी है। ‘द स्टेट आफ द साइबरनेशन` पुस्तक के लेखक नील वैरट के अनुसार, इंटरनेट के संदर्भ में ‘पाठ` को तीन भागों मे बाँटा जा सकता है।
- तात्कालिक महत्व के समाचार- परक लेख, जैसे दैनिक समाचार पत्र।
- पृष्ठभूमीय समाचार- परक लेख (बैकग्राउंडर), जिनकी उपयोगिता अपेक्षात कम समयबद्ध होती है जैसे साप्ताहिक और मासिक पत्रिकाएँ।
- स्थायी महत्व का कथा और अ- कथा साहित्य, यानी किताबें।
भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में दुनिया बहुत तेज़ी से सिकुड़ती और पास आती जा रही है। वैष्विक ग्राम की अवधारणा के पीछे सूचना क्रांति की शक्ति है। इस प्रक्रिया में इंटरनेट की भूमिका असंदिग्ध है। जहाँ दुनिया भर में पाठकों की संख्या का ग्राफ़ नीचे आया है, वहीं सूचना क्रांति को किताब पर छाए ख़तरे के रूप में भी देखा जा रहा है। इलेक्ट्रानिक माध्यमों में इंटरनेट एक ऐसा माध्यम हैं, जहाँ कथा और अ- कथा साहित्य बहुतायत में उपलब्ध हो सकते हैं। इसका अर्थ है कि इंटरनेट पर कोई भी कृति इंटरनेट पाठक वर्ग के लिए डाउनलोड की जा सकती है। इससे वेब पीढ़ी के पाठक तो अनमोल साहित्य और वैचारिक पुस्तकों से जुड़ेंगे ही, साथ में पुस्तक के वर्तमान स्वरूप में एक नया आयाम भी जुड़ेगा। इस दिशा में प्रयास हुए भी हैं, उदाहरण के तौर पर माइक्रोफ़िल्म को सामने रखते हैं। ख़ास अर्थे में यह भी पुस्तक की परिभाषा में एक नया आयाम तो जोड़ती है, लेकिन महँगाई और जटिल तकनीक के कारण इसकी पहुँच सीमित है, जबकि इंटरनेट का फैलाव विष्वव्यापी है।
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इंटरनेट की उपयोगिता को सबसे पहले विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं ने ही समझा। टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, नई दुनिया, इंडिया टुडे, आउटलुक जैसी पत्रिकाओं ने अपने इंटरनेट संस्करण निकालने आरंभ किए, इससे निश्चित ही इन पत्र- पत्रिकाओं की पाठक संख्या बढ़ी है। ‘द स्टेट आफ द साइबरनेशन` पुस्तक के लेखक नील वैरट के अनुसार, इंटरनेट के संदर्भ में ‘पाठ` को तीन भागों मे बाँटा जा सकता है।
- तात्कालिक महत्व के समाचार- परक लेख, जैसे दैनिक समाचार पत्र।
- पृष्ठभूमीय समाचार- परक लेख (बैकग्राउंडर), जिनकी उपयोगिता अपेक्षात कम समयबद्ध होती है जैसे साप्ताहिक और मासिक पत्रिकाएँ।
- स्थायी महत्व का कथा और अ- कथा साहित्य, यानी किताबें।
इंटरनेट पर पूरी किताब उपलब्ध करवाना बाइट का खेल है। (बाइट : कंप्यूटर में डेटा सुरक्षित रखने की आधारभूत इकाई, जिसमें एक बाइट आठ बिट के बराबर होती है), अधिकांश समाचार- परक लेखों की शब्द संख्या एक हज़ार शब्दों से कम होती है, पत्रिकाओं में छपने वाले लेखों की पाँच हज़ार शब्दों से कम, पूरे समाचार- पत्र या किसी पत्रिका को कंप्यूटर पर डाउनलोड करने में औसतन चालीस से पचास हज़ार शब्द लग सकते हैं। पुस्तकें इंटरनेट पर उपलब्ध करवाने में औसतन अस्सी हज़ार शब्द लगेंगे, यद्यपि यह संख्या तुलनात्मक रूप से अधिक प्रतीत होती है, लेकिन पूर्णतः व्यवहार्य है। कंप्यूटर की भाषा में कहें तो बिना चित्रों की अस्सी हज़ार शब्दों वाली किताब में मात्र 0.5 मेगाबाइट खर्च होंगे।
पुस्तकों के पाठकों की संख्या में आई गिरावट के इस दौर में इंटरनेट हमें एक नया पाठक वर्ग पैदा करने का अवसर देता है। तकनीकी विकास के साथ किताब का स्वरूप भी बदला है। हम जिस रूप में किताब को आज पाते हैं वह पहले से ऐसी नहीं थी। लेकिन तब से लेकर अब तक उसके होने पर कोई विवाद नहीं रहा। हाँ; तकनीक का विरोध औद्योगिक क्रांति के समय से ही कमोबेश होता रहा है। विक्टोरियन इंग्लैंड में कवि और समाज सुधारक विलियम मौरिस एक समय प्रिंटिंग प्रेस के सख्त विरोधी थे। उनकी नज़र में इससे किताब के सौंदर्य और भव्यता पर आँच पहुँचती थी। स्पष्टतः यह एक अभिजातवादी दृष्टिकोण है। हिंदी के रचनाकारों की समस्या है कि वह तकनीक का कोई सकारात्मक उपयोग प्रायः अपने लिए नहीं पाते। क्या यह स्थिति इसलिए है कि वे एक पिछड़े समाज के प्रतिनिधि हैं? किसी भी तकनीक के दो पहलू हुआ करते हैं। एक अच्छा तो दूसरा बुरा। बुरे का विरोध और अच्छे का अपने पक्ष में उपयोग ही उचित है, न कि कोरे विरोध के द्वारा स्वयं को इससे असंयुक्त कर लेना।
किताब का जो वर्तमान स्वरूप हमारे सामने है, उसमें किताब की अपनी स्वायत्त सत्ता होती है और पाठक की स्वायत्तता के खिलाफ़ इसकी दख़लअंदाज़ी बहुत सीमित होती है। मगर ऐसा ही इंटरनेट उपयोगकर्ता के साथ भी है। वह जब चाहे तब कम्प्यूटर का स्विच आफ़ कर सकता है। हाँ! यह अवश्य है कि लैप टॉप सरीखे महँगे कम्प्यूटर का उपयोग नदी किनारे बैठकर कोई साहित्यिक कृति पढ़ने के लिए नहीं किया जा सकता। यह कम्प्यूटर की सीमा भी है। लेकिन तकनीक सुलभ और सस्ती हो, तो भविष्य में कुछ भी संभव है।
इंटरनेट पर साहित्य उपलब्ध होने से कुछ विधा संबंधी परिवर्तन आना तय है। उदाहरण के लिए, जिस प्रकार पत्रकारिता के दबावों के चलते रिपोर्ताज, धारावाहिक लेखन सरीखी विधाएँ सामने आईं, उसी तरह कुछ नवीन विधाएँ इंटरनेट पर जन्म ले सकती हैं। सचित्र लेखन, कार्टून जिसका एक रूप है, उसकी तर्ज़ पर एक्शन भरा लेखन सामने आ सकता है। फ़िल्म और साहित्य के बीच की कोई विधा विकसित हो सकती है। ऑन लाइन फ़रमाइशी लेखन की संभावना भी बनती है। इंटरनेट पर सहकारी यानी सामूहिक लेखन के प्रयास भी हो सकते हैं। अब प्रश्न उठता है कि क्या इंटरनेट पर गंभीर साहित्य की रचना संभव है या फिर यह सिर्फ़ पॉपुलर साहित्य तक ही सिमट जाएगा, इस प्रश्न का उत्तर भविष्य ही दे सकता है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इंटरनेट स्वयं संप्रेषण माध्यम की अंतिम कड़ी नहीं है।
वैज्ञानिक खोजें किसी एक बिंदु पर आकर नहीं रुकतीं, टेलीप्रिंटर के आने से संप्रेषण माध्यम में एक नया आयाम जुड़ा और बाद में यह रेडियो के विकास की कड़ी बना। हालाँकि अपने स्वतंत्र रूप में टेलीप्रिंटर आज भी बना हुआ है। इतिहास बताता है कि मशीन पर किताब छपने से क्लासिक की परिभाषा और किताब का स्वरूप, दोनों ही बदले हैं। इंटरनेट पर उपलब्ध होने वाले साहित्य को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। कुल मिलाकर इंटरनेट- साहित्य किताब की परिभाषा में कुछ नया ही जोड़ता है।
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इंटरनेट पर साहित्य उपलब्ध होने से कुछ विधा संबंधी परिवर्तन आना तय है। उदाहरण के लिए, जिस प्रकार पत्रकारिता के दबावों के चलते रिपोर्ताज, धारावाहिक लेखन सरीखी विधाएँ सामने आईं, उसी तरह कुछ नवीन विधाएँ इंटरनेट पर जन्म ले सकती हैं। सचित्र लेखन, कार्टून जिसका एक रूप है, उसकी तर्ज़ पर एक्शन भरा लेखन सामने आ सकता है। फ़िल्म और साहित्य के बीच की कोई विधा विकसित हो सकती है। ऑन लाइन फ़रमाइशी लेखन की संभावना भी बनती है। इंटरनेट पर सहकारी यानी सामूहिक लेखन के प्रयास भी हो सकते हैं। अब प्रश्न उठता है कि क्या इंटरनेट पर गंभीर साहित्य की रचना संभव है या फिर यह सिर्फ़ पॉपुलर साहित्य तक ही सिमट जाएगा, इस प्रश्न का उत्तर भविष्य ही दे सकता है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इंटरनेट स्वयं संप्रेषण माध्यम की अंतिम कड़ी नहीं है।
वैज्ञानिक खोजें किसी एक बिंदु पर आकर नहीं रुकतीं, टेलीप्रिंटर के आने से संप्रेषण माध्यम में एक नया आयाम जुड़ा और बाद में यह रेडियो के विकास की कड़ी बना। हालाँकि अपने स्वतंत्र रूप में टेलीप्रिंटर आज भी बना हुआ है। इतिहास बताता है कि मशीन पर किताब छपने से क्लासिक की परिभाषा और किताब का स्वरूप, दोनों ही बदले हैं। इंटरनेट पर उपलब्ध होने वाले साहित्य को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। कुल मिलाकर इंटरनेट- साहित्य किताब की परिभाषा में कुछ नया ही जोड़ता है।
780 भाषाएं बोलता है देष
देष में भाषा का सवाल उसकी विविधता को बचाए रखने से जुड़ता है। हाल ही में भाषा संबंधी एक अध्ययन में स्पष्ट हुआ है कि भारत में मौजूदा समय में 780 भाषाएं बोली जाती हैं। वहीं चिंतनीय है कि पिछले 50 साल में 250 भाषाएं लुप्त हो गई हैं। यह अध्ययन बगैर किसी सरकारी सहयोग के हुआ। भारत की भाषायी विविधता का पहला अध्ययन औपनिवेषिक काल में आयरिष विद्वान जॉन अब्राहम गियर्सन ने किया था।
भारत की विविधता अलग&अलग तरह की भाषाओं और बोलियों में झलकती है। भारत भाषाओं की स्थिति पर किए गए सर्वे में भारत में सैकड़ों बोलियों और लिपियों के प्रयोग की जानकारी मिली है, हालांकि भाषायी विविधता के संकट का भी पता चला है। अध्ययन के मुताबिक देष में पिछले 50 सालों में 250 भाषाएं बोलियां लुप्त हो गई हैं।
50 साल, 250 भाषाएं लुप्त
भाषाओं के लुप्त होने के बावजूद भारत में अभी भी विभिन्न तरह की लगभग 780 भाषाओं को संवाद के लिए प्रयोग में लाया जाता है। ‘पीपुल लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया` (पीएलएसआई) की तरफ से भाषा गत सर्वेक्षण पूरा हो चुका है। इसे किया जा सकता है। पीएलएसआई अध्यक्ष जी.एन.देवी के अनुसार, 780 भाषाओं के अलावा 86 विभिन्न तरह की लिपियां देष में प्रयोग में लाई जाती हैं। उन्होंने कहा कि देष की विविधता की यह सच्चाई है, लेकिन इसका एक दुखद पहलू यह भी है कि पिछले 50 वर्ष या उससे अधिक समय में 250 भाषाएं लुप्त हो गई हैं।
आजादी के बाद पहला सर्वे
औपनिवेषिक सत्ता के दौरान एक आयरिष भाषाविद् जॉन अब्राहम गियर्सन ने 1898 से लेकर 1928 के बीच भारत में भाषाओं की स्थिति पर सर्वे किया था, लेकिन आजादी के छह दषक बाद स्वतंत्र भारत का यह पहला व्यापक सर्वेक्षण पीएलएसआई ने किया है। पीएलएसआई ने 85 संस्थाओं और विष्वविद्यालयों के सहयोग से इस षोध को चार वर्षों में पूरा किया है, जिसमें लगभग 3,000 से अधिक विषेषज्ञ षामिल रहे हैं। पीएलएसआई मुख्यतः परामर्षकारी और मूल्यांकन करने वाला फोरम है।
21 साल में पूरा हुआ सर्वे
सर्वे से जुड़े षोध कार्य को करने में केवल चार साल का ही वक्त लगा है, लेकिन इस षोध से जुड़ी तैयारियों को करने में 17 साल लगे हैं। जी.एन.देवी का कहना है कि बिना किसी सरकारी मदद लिए यह षोध कार्य 21 साल की कड़ी मेहनत का परिणाम है। उन्होंने कहा कि प्रकाषित होने वाली रिपोर्ट में भारत में बोली जाने वाली सभी भाषाओं की विविध जानकारियां हैं। इसमें भाषाओं के ऐतिहासिक और भौगोलिक विवरण के साथ उनके उद्भव, व्याकरण और उनसे जुड़े रचनात्मक&सांस्कृतिक कार्यों और लोकगीतों की जानकारियां उपलब्ध होंगी। लिपियों के इस्तेमाल के मामले में पष्चिम बंगाल सबसे अधिक धनी है। यहां 38 भाषाएं और नौ लिपियों का प्रयोग हो रहा है।
सभी भाषाओं पर हो ध्यान
भारत में 780 भाषाओं में से केवल 22 को भारतीय भाषा के रूप में अधिसूचित किया गया है। 122 भाषाओं के बारे में जनगणना रिपोर्ट है कि उसे 10,000 से ज्यादा लोग बोलते हैं और षेष भाषाओं को 10,000 से कम लोग बोलते हैं। देवी के अनुसार, संकटग्रस्त भाषाओं की गणना में संख्या को आधार नहीं बनाया जाना चाहिए। सरकार को सभी भाषाओं को बचाए रखने में मदद करनी चाहिए। किसी भाषाओं को संकटग्रस्ट घोषित किए जाने में किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। उल्लेखनीय है कि बीते कुछ समय में देष में भारतीय भाषाओं को तरजीह देने की मांग तेज हुई है। विभिन्न कार्यकर्ता न्यायालयों में भी भारतीय भाषाओं में कामकाज षुरू किए जाने की मांग कर रहे हैं।
50 साल, 250 भाषाएं लुप्त
भाषाओं के लुप्त होने के बावजूद भारत में अभी भी विभिन्न तरह की लगभग 780 भाषाओं को संवाद के लिए प्रयोग में लाया जाता है। ‘पीपुल लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया` (पीएलएसआई) की तरफ से भाषा गत सर्वेक्षण पूरा हो चुका है। इसे किया जा सकता है। पीएलएसआई अध्यक्ष जी.एन.देवी के अनुसार, 780 भाषाओं के अलावा 86 विभिन्न तरह की लिपियां देष में प्रयोग में लाई जाती हैं। उन्होंने कहा कि देष की विविधता की यह सच्चाई है, लेकिन इसका एक दुखद पहलू यह भी है कि पिछले 50 वर्ष या उससे अधिक समय में 250 भाषाएं लुप्त हो गई हैं।
आजादी के बाद पहला सर्वे
औपनिवेषिक सत्ता के दौरान एक आयरिष भाषाविद् जॉन अब्राहम गियर्सन ने 1898 से लेकर 1928 के बीच भारत में भाषाओं की स्थिति पर सर्वे किया था, लेकिन आजादी के छह दषक बाद स्वतंत्र भारत का यह पहला व्यापक सर्वेक्षण पीएलएसआई ने किया है। पीएलएसआई ने 85 संस्थाओं और विष्वविद्यालयों के सहयोग से इस षोध को चार वर्षों में पूरा किया है, जिसमें लगभग 3,000 से अधिक विषेषज्ञ षामिल रहे हैं। पीएलएसआई मुख्यतः परामर्षकारी और मूल्यांकन करने वाला फोरम है।
21 साल में पूरा हुआ सर्वे
सर्वे से जुड़े षोध कार्य को करने में केवल चार साल का ही वक्त लगा है, लेकिन इस षोध से जुड़ी तैयारियों को करने में 17 साल लगे हैं। जी.एन.देवी का कहना है कि बिना किसी सरकारी मदद लिए यह षोध कार्य 21 साल की कड़ी मेहनत का परिणाम है। उन्होंने कहा कि प्रकाषित होने वाली रिपोर्ट में भारत में बोली जाने वाली सभी भाषाओं की विविध जानकारियां हैं। इसमें भाषाओं के ऐतिहासिक और भौगोलिक विवरण के साथ उनके उद्भव, व्याकरण और उनसे जुड़े रचनात्मक&सांस्कृतिक कार्यों और लोकगीतों की जानकारियां उपलब्ध होंगी। लिपियों के इस्तेमाल के मामले में पष्चिम बंगाल सबसे अधिक धनी है। यहां 38 भाषाएं और नौ लिपियों का प्रयोग हो रहा है।
सभी भाषाओं पर हो ध्यान
भारत में 780 भाषाओं में से केवल 22 को भारतीय भाषा के रूप में अधिसूचित किया गया है। 122 भाषाओं के बारे में जनगणना रिपोर्ट है कि उसे 10,000 से ज्यादा लोग बोलते हैं और षेष भाषाओं को 10,000 से कम लोग बोलते हैं। देवी के अनुसार, संकटग्रस्त भाषाओं की गणना में संख्या को आधार नहीं बनाया जाना चाहिए। सरकार को सभी भाषाओं को बचाए रखने में मदद करनी चाहिए। किसी भाषाओं को संकटग्रस्ट घोषित किए जाने में किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। उल्लेखनीय है कि बीते कुछ समय में देष में भारतीय भाषाओं को तरजीह देने की मांग तेज हुई है। विभिन्न कार्यकर्ता न्यायालयों में भी भारतीय भाषाओं में कामकाज षुरू किए जाने की मांग कर रहे हैं।